तमसो मा ज्योतिर्गमय
दीवाली अंधेरे को दूर भगाने का त्योहार है। कार्तिक मास की अमावस्या को मनाए जाने वाले इस त्योहार का भारतीय लोकजीवन में विशेष आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व है। दीवाली की रात दीपक जलाकर हम अपने चारों ओर रोशनी करके अंधेरे पर उजाले की विजय का उत्सव मनाते हैं। अंधेरा असत्य, अन्याय या नकारात्मक पक्ष का सूचक है, वहीं उजाला सत्य, न्याय और सकारात्मक पक्ष का सूचक है।
समाज में व्याप्त बुराइयों पर अच्छाई की विजय का प्रतीक भी है दीवाली। यह पर्व सुख और समृद्धि का प्रतीक भी है। इस पर्व का व्यक्तिगत जीवन में भी काफी महत्व है। इस दिन हम दीप जलाकर अन्याय, असत्य और अंधेरे को दूर भगाने के साथ ही मन के मलिन पक्ष को भी स्वयं से दूर करते हैं। उजाला हमारे अंदर सत्य, न्याय और अच्छे गुणों का समावेश करता है। दीवाली स्वच्छता और स्वास्थ्य का भी उत्सव है।
इस पर्व का खास आर्थिक महत्व भी है। यह पर्व शीतकाल के प्रारम्भ की सूचना देकर किसानों के अंदर नए फसलों के प्रति उत्साह पैदा करता है। यह पर्व लोगों को एक दूसरे के करीब लाता है जिससे भाईचारे की भावना बलवती होती है।
कई पौराणिक कथाएं भी इस त्योहार से जुड़ी हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान राम जब 14 साल का वनवास पूरा करके वापस अयोध्या लौटे थे तो इसी खुशी में दीवाली मनाने की शुरुआत हुई । साथ ही युधिष्ठिर द्वारा द्वापर युग में किए गए राजसूय यज्ञ के समय से भी दीवाली मानने का उल्लेख शास्त्रों में किया गया है।
आलोकित दीपों के प्रतीकों द्वारा लोकजीवन में बुराईयों पर विजय पाने की कामना को भरने वाले इस त्योहार का महत्व भी समय के अनुसार बदलता गया है। बदलते दौर में बाजारवाद इस त्योहार पर बुरी तरह हावी हो गया है और उजाले दीपकों से नहीं पटाखों से हो रहे हैं। अब समृद्धि के लिए दीपों से अधिक पटाखों को महत्व दिया जा रहा है। आस्था और परंपरा पटाखों के शोर के नीचे दबती चली जा रही है।